Pravasi Mithila

30.7.13

घैल

कोंटा में राखल घैल देखि
मुह बिचकाबैत अछि फ्रिज
हसैत ठहाका मारि के
चढ़बैया ओकरा खिज 
ऐ घैल आब तू घैल नहि
छुतहर भs गेल छाs
आब तु सगर दुनियाँ में
अछूत बनि गेल छाs
... ऐ फ्रिज नहि कर एतेक गुमान
नहि रह्तौक तोरो राज सबदिन
निकलि जेतैक कोनो दोसर विकल्प
घर सँ बाहर करतौक ओहिदिन
हमरा तs घsर सँ केलक कात
मुदा तोरा सहय परतौक
लोहाक मरियाक पसाठ
आ झोंकि देतौक गरम भट्टी में
हम युग-युग केलहु राज
सतयुग, त्रेता, द्वापर आ कलयुग
हमरा बिना नहि चलैत छल काज
हमरा जतेक केलक स्नेह
नवकी कनिआ, बुढ आ जुआन
चढ़लहु ककरो कोरा तs
ककरो माथ आ कान्ह
हमही मिझबैत छलहु सबहक पियास
जेठ-बैसाखक बीच दुपहरिआ  
हमरा अछैते नहि कहिओ बेचल गेल पैन
ककरो हाथ बाट-बटोही आ कहरिया
नहि आई धरि कोनो डाक्टर-बैद
हमरा सँ करेलक ककरो परहेज
हम तोरा जकाँ नहि रहैत छलहु
छ महिना कात आ छ महिना हेंज
हम फेर लेब अवतार
कोनो नहि कोनो रूप में

रचनाकार :- दयाकान्त 

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